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एक दौर वह था जब हमारा गणतंत्र विकास के मामले में बेहद पिछड़ा था और काफी कुछ भगवान भरोसे ही चलता था. हममें से काफी लोग ऐसे माहौल में पले-बढ़े हैं जब ताने मारे जाते थे कि भाषाई तौर पर भारतीयों के लिए बीते कल और आने वाले कल के बारे में कोई अंतर करना बेहद मुश्किल है. हर चीज इतनी धीमी रफ्तार से आगे बढ़ती कि आइएसटी (इंडियन स्टैंडर्ड टाइम) यानी भारतीय मानक समय को इंडियन स्ट्रेचेबल टाइम या भारतीय लचीला समय कहा जाने लगा था और बेहद धीमी आर्थिक प्रगति की तो हिंदू विकास दर कहकर खिल्ली ही उड़ाई जाती थी. भारत को लेकर ऐसी खिल्ली और हिकारत के लफ्ज आज शायद ही कहीं सुनाई पड़ते हों. अब उनकी जगह दुनिया की सबसे तेज बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था , इंडिया इंक. , गवर्नंस डैशबोर्ड और जिंदगी की सहूलत जैसे आकर्षक मुहावरों ने ले ली है. इस बदलाव की शुरुआत शायद 1990 के दशक के आर्थिक उदारीकरण के साथ हुई, जिसने अर्थव्यवस्था को तमाम तरह की बेड़ियों से मुक्त किया (या कहें कि करना शुरू किया) और हमारी उत्पादक क्षमता को दुनिया के सामने रखा. हालांकि, देश के लोगों के लिए इन क्रांतिकारी परिवर्तनों का स्वाद चखना और सही मायने में अपनी जिंदगी में उनका लाभ उठाना अभी पिछले कुछ वर्षों में ही संभव हो पाया. लेनदेन, मनोरंजन से लेकर कल्याणकारी योजनाओं के लाभ तक सहज और सुलभ बनाने वाली डिजिटल क्रांति ने लोगों के जीवन में आमूलचूल बदलाव ला दिया. फिर राजमार्ग, आवास तथा स्वास्थ्य सेवा और बुनियादी सुविधाओं का तेजी से बढ़ना भी साफ नजर आता है. यहां तक कि नल सिर्फ देखने के लिए नहीं लगे हैं, उनमें पानी भी आने लगा है. 2025 तक हर घर जल पहुंचाना ही जल जीवन मिशन का लक्ष्य है. इसी तरह, भारतनेट कार्यक्रम फाइबरऑप्टिक केबल की अपनी विशाल लाइन के माध्यम से अधिकांश ग्रामीण भारत में हाइ स्पीड इंटरनेट सुविधाएं पहुंचाने में जुटा है. कुल मिलाकर डिजिटल टेक्नोलॉजी में बढ़ते कदम, पक्के इन्फ्रास्ट्रक्चर और कड़ी मेहनत करने की पुरानी आदत से देश के लोगों को अब सहज और सुगम जीवन का सुखद अनुभव मिलना शुरू हो गया है. आगे के पन्नों में हम इसी की 25 मिसालों से रू-ब-रू होंगे. यह आशावादिता बिना किसी झंझट के सेवा आपूर्ति, यात्रा और लेन-देन की प्रक्रिया में निरंतर तेजी लाकर एक गणराज्य के तौर पर एकजुट रखने का वादा करती है. यह एक ऐसे भारत की तस्वीर सामने रखती है, जिसमें सबका जीवन बीते कल की तुलना में बहुत बेहतर होगा.
थीं कितनी दुश्वारियां सुबह जल्दी उठना. घर के सभी बर्तनों को लेकर सबसे पास वाले कुएं या हैंडपंप पर जाना और लंबी कतार में लगना. बर्तनों के अपने कोटे को भरने के लिए बूंद-बूंद पानी का अंतहीन इंतजार. और सिर पर एक के बाद एक बर्तनों को संतुलित ढंग से रखकर घर वापस लौटने के लिए लंबा सफर. हमारे गांवों में भारतीय महिलाओं की यही नियति थी. रोजाना पानी इकट्ठा करने में बिताए जाने वाले कीमती घंटों की बर्बादी. गर्मी का मौसम अपने साथ डर लाता है और तब पानी की किल्लत बढ़ने का अंदेशा रहता है. कई लोगों ने जीवन के अमृत को पाने के लिए जमीन में गहरी खुदाई की लेकिन ज्यादा से ज्यादा बोरवेल की वजह से भूजल खतरनाक ढंग से नीचे चला गया और जमीन सूख गई. नल का कनेक्शन एक विलासिता थी जिसे भारत के 82 फीसद ग्रामीण परिवारों ने कभी नहीं देखा था. यूं आसान हुआ जीवन अब यह बीती बात हो गई है. देश के 19 करोड़ से ज्यादा ग्रामीण परिवारों में से लगभग 80 फीसद यानी 15.4 करोड़ के घर में नल है. और इस बदलाव को लाने में मदद करने वाला जल जीवन मिशन (जेजेएम) है, जिसे 2019 में लॉन्च किया गया था. जेजेएम 3.6 लाख करोड़ रुपए के परिव्यय, और पारदर्शिता और वास्तविक समय की निगरानी के लिए प्रौद्योगिकी का लाभ उठाते हुए 2024 तक सभी गांवों के घरों में नल कनेक्शन लगाने की कोशिश कर रहा है. इसका ध्यान जल आपूर्ति के लिए बुनियादी ढांचे का निर्माण कर जल प्रवाह बनाए रखने के लिए जल संसाधनों को बनाए रखना है. जेजेएम की विविध चुनौतियों ने पांच साल में पूर्ण कवरेज के लिए इसकी महत्वाकांक्षा को भले नाकाम कर दिया हो लेकिन 11 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने असंभव लगने वाले लक्ष्य को हासिल कर लिया है. छह ें से केवल एक घर में नल के पानी के कनेक्शन के मुकाबले अब चार में से तीन ग्रामीण परिवारों के पास नल से जल का कनेक्शन है. जेएमएम के आंकड़ों से पता चलता है कि घर में नल के पानी की पहुंच की कमी केवल चार राज्यों में चिंता का विषय है. पश्चिम बंगाल में सबसे कम 53.9 फीसद कवरेज है, उसके बाद केरल में 54.13 फीसद, झारखंड में 54.62 फीसद और राजस्थान में 54.95 फीसद कवरेज है. इस तरह के मिशन के परिवर्तनकारी प्रभावों पर शायद ही कोई संदेह हो. विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि पूर्ण कवरेज से हर रोज 5.5 करोड़ घंटे की बचत हो सकती है, सुरक्षित पेयजल से डायरिया से होने वाली बीमारियों से लगभग 4,00,000 मौतें रोकी जा सकती हैं, जिससे लगभग 1.4 करोड़ विकलांगता समायोजित जीवन वर्ष बच सकते हैं. आखिरकार, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2010 में स्वच्छ पेयजल को मानव अधिकार के रूप में मान्यता दी थी.
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