April 23, 2025
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इस ट्रंप टैरिफ से भला कैसे निबटें
हर कोई जानता था कि ट्रंप के खतरनाक टैरिफ आने वाले हैं. लेकिन जब वे आखिरकार आए तो हर ओर अफरा-तफरी मच गई. दुनिया भर में शेयर और कमोडिटी बाजार ढह गए, डॉलर के मुकाबले प्रमुख मुद्राएं लुढ़क गईं और वैश्विक मंदी की चर्चा फिर से सुर्खियों में छा गई. चीन और विएतनाम जैसे अपने कुछ प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले भारत अपेक्षाकृत कम टैरिफ के साथ थोड़ी राहत में रहा क्योंकि उसने दो महीने से थोड़े ही समय पहले अमेरिका के साथ एक बहुक्षेत्रीय साझेदारी समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. इसमें 2030 तक द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ाकर 500 अरब डॉलर (43.4 लाख करोड़ रुपए) तक करने की योजना शामिल है. लेकिन कम टैरिफ कोई राहत नहीं थी. सभी सेक्टरों के भारतीय कारोबार फिलहाल अमेरिकी टैरिफों से होने वाले नुक्सान का—न सिर्फ अमेरिका को अपने निर्यात का, बल्कि टैरिफ से अस्त-व्यस्त हुए दुनिया भर के बाजारों का भी—आकलन करने में व्यस्त हैं. वे आने वाले महीनों में मांग में कमी झेल सकते हैं. हालांकि टं्रप ने अब 90 दिनों की मोहलत दे दी है, मगर हवा में दहशत घटी नहीं है. उद्योग संगठन सरकारी अधिकारियों के साथ भारी टैरिफ के असर का अंदाज लगाने और उलट-पुलट गए विश्व व्यापार परिदृश्य को लेकर रणनीति बनाने में जुटे हैं. वित्त वर्ष 24 में भारत ने अमेरिका को 77.5 अरब डॉलर (6.7 लाख करोड़ रुपए) मूल्य का वाणिज्यिक सामान निर्यात किया और उससे 42.2 अरब डॉलर (3.6 लाख करोड़ रुपए) मूल्य का आयात किया. इससे भारत को 35.3 अरब डॉलर (3 लाख करोड़ रुपए) की व्यापार बढ़त हासिल हुई. अमेरिका ने धारा 232 के तहत पहले 12 मार्च को स्टील और एल्युमिनियम पर 25 फीसद टैरिफ लगाया और फिर 26 मार्च को उतना ही ऑटो और ऑटो कल-पुर्जे पर लगा दिया. अगर ये टैरिफ बने रहते हैं तो इन क्षेत्रों के निर्यात के आंकड़े भारी गोता लगा सकते हैं. इंजीनियरिंग सामान क्षेत्र ने पिछले साल अमेरिका को 17.6 अरब डॉलर (1.5 लाख करोड़ रुपए) की वस्तुओं का निर्यात किया था. यही सबसे ज्यादा झटका खा सकता है. इस साल उसका 5 अरब डॉलर (43,217.5 करोड़ रुपए) का कारोबार साफ हो सकता है. इसके ज्यादातर निर्यातक कुटीर, लघु और मझोले उद्यमों (एमएसएमई) के हैं. उनकी तात्कालिक चिंता तीन महीने के 6-7 अरब डॉलर (51,860-60,504 करोड
क्या नीतीश को मुसलमानों की जरूरत नहीं?
संसद में वक्फ संशोधन विधेयक पेश होने के तीन दिन बाद 5 अप्रैल को जनता दल-यूनाइटेड (जदयू) दफ्तर में पार्टी के कई बड़े मुसलमान नेता जुटे थे. उन्हें मीडिया को यह बताने की जिम्मेदारी दी गई थी कि इस मसले पर पार्टी में कोई अंदरूनी विवाद नहीं है. मगर पत्रकारों के पहले सवाल पर ही ये नेता प्रेस कॉन्फ्रेंस को बीच में छोड़कर चले गए. उनसे सिर्फ इतना पूछा गया था कि आप लोग वक्फ कमेटी में हिंदू सदस्यों के होने की शर्त से सहमत हैं? दरअसल, बिहार के मीडिया में वक्फ संशोधन विधेयक को लेकर जो सवाल और आपत्तियां तैर रही हैं, उनमें से ज्यादातर जद-यू के मुसलमान नेताओं ने ही उठाई हैं. विधान परिषद सदस्य गुलाम गौस ने एक रोज पहले राष्ट्रपति और केंद्र सरकार से इस बिल को वापस लेने की मांग की थी और बिना नाम लिए नीतीश के लिए यह शेर पढ़ा था, मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है/क्या मेरे हक में फैसला देगा? एक और विधान परिषद सदस्य खालिद अनवर मीडिया से बोले, मुसलमान समाज इस बिल की वजह से डरा हुआ है. शिया वक्फ बोर्ड के चेयरमैन सैयद अफजल अब्बास ने 2 अप्रैल के दिन इंडिया टुडे से कहा, इन हालात में हम राज्य के मुसलमानों के सवालों का सामना कैसे करेंगे, कुछ समझ नहीं आता. इस बीच जद-यू के कम से कम तीन बड़े मुस्लिम नेता इस्तीफा दे चुके हैं. पूर्व सांसद गुलाम रसूल बलियावी ने तो सोशल मीडिया पर कहा कि उनका संगठन इदारा-ए-शरीया इस बिल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएगा. हालांकि इस प्रेस कॉन्फ्रेंस की शुरुआत में पार्टी प्रवक्ता अंजुम आरा ने सधे हुए स्वर में बताया कि इस विधेयक को लेकर बनी संयुक्त संसदीय समिति ने जद-यू के पांच जरूरी सुझावों को मान लिया है. इसके बाद अब नए कानून में दिक्कत की कोई बात नहीं है.हालांकि तब तक काफी देर हो चुकी थी. राज्य के मुसलमानों का गुस्सा कम होता नजर नहीं आ रहा. पार्टी के मुसलमान नेताओं के बीच सबसे ज्यादा नाराजगी लोकसभा में जद-यू सांसद ललन सिंह के संबोधन को लेकर है. पूर्वी चंपारण के जद-यू नेता कासिम अंसारी अपने इस्तीफे में लिखते हैं, वक्फ बिल संशोधन अधिनियम 2024 पर जद-यू के स्टैंड से हम जैसे पार्टी के कार्यकर्ताओं को गहरा आघात लगा है. लोकसभा में ललन सिंह ने जिस अंदाज से इस बिल का समर्थन किया, उससे भी हम मर्माहत हैं. जद-यू के सेक्युलर मिजाज के दूसरे कई नेता भी ललन सिंह के भाषण को दिक्कत की सबसे बड़ी वजह मानते हैं. एक बड़े मुसलमान नेता नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताते हैं कि अब भाजपा और जद-यू में फर्क ही क्या रहा? जो वोटर पहले हमें वोट दे दिया करते थे, वे अब क्यों वोट देंगे? उनकी फिक्र जायज लगती है. एनडीए के साथ रहने के बावजूद नीतीश कुमार के सेक्युलर रवैये की वजह से राज्य के मुसलमान उनकी सरकार में अब तक सुरक्षित महसूस करते रहे हैं और कई इलाकों में उनकी पार्टी को इस तबके का वोट मिलता रहा है. पूर्व सांसद अली अनवर का कहना है, दरअसल, हम नीतीश कुमार के साथ आए ही इस वजह से थे क्योंकि उनका मिजाज सेक्युलर था. उन्होंने हमसे कहा था, हम कम्युनल आदमी नहीं हैं. भाजपा तो बैसाखी है. आप लोग साथ दीजिए, हम इस बैसाखी को छोड़ देना चाहते हैं. मगर नीतीश उस बैसाखी को छोड़ नहीं पाए, बल्कि उस पर और आश्रित हो गए, मजबूरन हमें ही उनका साथ छोड़ना पड़ा. पसमांदा मुसलमानों की लड़ाई लड़ने वाले अली अनवर को नीतीश कुमार और बिहार के मुसलमानों के बीच के रिश्ते की कड़ी की तरह देखा जाता है. वे बताते हैं, 2005 में जब नीतीश कुमार ने लोकसभा में पसमांदा मुसलमानों का मुद्दा उठाया तो भाजपा नेता विजय कुमार मलहोत्रा ने उन्हें कहा था कि अब आप भी तुष्टीकरण करने लगे. बाद में इसी इल्जाम के साथ पांचजन्य पत्रिका ने भी नीतीश जी के खिलाफ आलेख छापा था. मगर वे हमारे साथ खड़े रहे. इसलिए हम भी उनके साथ आ गए. अक्तूबर, 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में अगर एनडीए को बहुमत मिला तो उसकी वजह नीतीश की खास तरह की सोशल इंजीनियरिंग को माना जाता है. उन्होंने पिछड़ों के बीच वंचित अति पिछड़ा वर्ग, दलितों के बीच हाशिए पर खड़े महादलित वर्ग और मुसलमानों के बीच पिछड़े पसमांदा समूह को टारगेट किया. उस वक्त अपने चुनाव प्रचार में वे अति पिछड़ा नेता उदय कुमार चौधरी, महादलित नेता बबन रावत और पसमांदा मुसलमानों की लड़ाई लड़ने वाले अली अनवर को अपने साथ रखते थे. पसमांदा नेता के मुताबिक, उन्हें इसका फायदा मिला. सीएसडीएस के एसोसिएट प्रोफेसर हिलाल अहमद कहते हैं, नीतीश कुमार की सफलता की एक बड़ी वजह यह रही कि उन्होंने मुसलमानों के बीच बरसों से दबे जाति के सवाल को आवाज दी; पसमांदा आंदोलन को वैधता प्रदान की; रंगनाथ मिश्र आयोग और सच्चर आयोग के सुझावों को मान्यता दी; अली अनवर अंसारी जैसे नेता को राज्यसभा भेजा, जिनके भाषणों से संसद की बहसों में मुसलमानों की विविधता का पक्ष दर्ज हुआ. उस चुनाव में जद-यू के चार मुसलमान विधायक चुने गए. उत्साहित नीतीश ने अपने पहले कार्यकाल में चारों को बारी-बारी से मंत्री बनाया. इसका नतीजा 2010 के अगले विधानसभा चुनाव में देखने को मिला. पार्टी के सात मुसलमान प्रत्याशियों ने जीत हासिल की और छह दूसरे स्थान पर रहे. सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वेक्षण में 28 फीसद मुसलमानों ने बताया कि बिहार के लिए जद-यू ही सबसे अच्छी पार्टी है, जबकि राजद के बारे में ऐसा सिर्फ 26.4 फीसद मुसलमानों ने कहा. उस चुनाव में जद-यू और नीतीश कुमार का मुसलमानों पर ऐसा असर था कि पहली बार कोई मुस्लिम प्रत्याशी भाजपा के टिकट से चुनाव जीत गया. वे सबा जफर थे, जो अमौर से चुनाव जीते थे. बाद में वे जद-यू में शामिल हो गए. इस जीत की वजहें भी थीं. अली अनवर कहते हैं, नीतीश ने अपना वादा पूरा किया. स्थानीय निकाय के चुनाव में पसमांदा जातियों को अति पिछड़ा श्रेणी में शामिल किया. उन्होंने भागलपुर दंगों के मामले में स्पीडी ट्रायल कराया. गरीब मुसलमानों के लिए कई योजनाएं शुरू कीं. स्थानीय निकाय और सरकारी नौकरियों में पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण देने का बड़ा लाभ हुआ. बड़ी संख्या में मुसलमान मुखिया बने. शिक्षकों की नौकरी में भी मुसलमान बड़ी संख्या में आए. इसके अलावा, नीतीश ने पांच मुसलमानों को राज्यसभा भेजा और 16 को विधान